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२२ अक्तूबर, १९५८
''यह बह दृष्टिकोण नहीं है जिससे मनुष्यमें आध्यात्मिक विकास- की सार्थकताका निर्णय किया जा सकता है या उसका मूल्य आका जा सकता है । उसका उद्देश्य पुरानी या आजकलकी मानसिक अवस्थाके आधारपर मानव समस्याओंको हल करना नहीं है । उसका उद्देश्य है हमारी सत्ता, हमारे जीवन और हमारे ज्ञानको एक नया आधार देना । रहस्यवेत्ताकी संन्यास या परलोककी ओर वृत्ति इस बातका बहुत अधिक पुष्ट प्रमाण है कि बह भौतिक प्रकृतिद्वारा आरोपित सीमाओंको स्वीकार नहीं करता । उसकी सत्ताका मुख्य हेतु ही है प्रकृतिके परे जाना । अगर वह उसे बदल नहीं सकता तो बह उसे छोडू जायेगा । साथ ही आध्यात्मिक पुरुष सदा ही मानव जातिके
३७९ जीवनसे दूर-दूर नहीं रहे हैं । आत्माके केंद्रीय रूपमें खिलनेके मुख्य भाव हैं : सभी प्राणियोंके साथ एकताका भाव, विश्व प्रेम और करुणापर जोर, सबके भलेके लिये अपनी शक्तियों- को खर्च करनेकी इच्छा । इसीलिये आध्यात्मिक व्यक्ति सहायता करनेके लिये प्रवृत्त हुआ, उसने प्राचीन ऋषियों और देवदूतों तरह मार्ग-दर्शन किया और जय कभी वह रचना करने- के लिये झुका और जब उसने आत्माकी किसी साक्षात् शक्ति- को साथ लिया तब आश्चर्यजनक परिणाम हुए । लेकिन आध्यात्मिकता समस्याका जो हल दिखाती है बह कोई बाहरी हल नहीं है, यद्यपि बाहरी साधनोंका भी उपयोग तो करना ही है, उसके अनुसार आंतरिक परिवर्तन और चेतना तथा प्रकृतिका रूपांतर करना होगा ।
अगर आध्यात्मिकताका अभीतक कोई निर्णायक परिणाम नहीं आया, केवल आशिक परिणाम ही दिखायी दिया है, चेतनाके परिमाणमें कुछ नये और अधिक अच्छे तत्त्व ही इकट्ठे किये जा सके हैं तो इसका कारण यह है कि साधारण मानवने हमेशा आध्यात्मिक प्रवृत्तिको पथभ्रष्ट किया है, वह आध्यात्मिक आदर्शसे पीछे हटा है या उसने केवल बाहरी रूपको स्वीकार किया है और आंतरिक परिवर्तनको अस्वीकार कर दिया है । आध्यात्मिकता- से यह मांग नहीं की जा सकती कि वह जीवनके साथ अनाध्यात्मिक तरीकोंसे व्यवहार करे या उसके रोगोंकी चिकित्सा रामबाण दवाइयोंसे, यानी, उन राजनीतिक, सामाजिक या अन्य यांत्रिक उपायोंसे करनेकी कोशिश करे जिनका उपयोग मन हमेशा करता रहा है और जिनमें हमेशा असफलता ही हाथ लगीं है और जो कभी किसी समस्याको हल करनेमें सफल म होंगे । इन उपायोंसे किये गये अधिक-से-अधिक उग्र परिवर्तन भी कुछ नहीं बदल पाते । पुराने रोग नये रूपमें बने रहते है । बाहरी परिवेशका रूप बदल जाता है, परंतु मनुष्य जो था वही बना रहता है । बह अब भी एक नादान मानसिक प्राणी है जो अपने ज्ञानका या तो गलत उपयोग करता है या प्रभावशाली रूपमें उपयोग नहीं करता । अहंकार ही उसे चलाता है, प्राणिक इच्छाएं ओर आवेग तथा शारीरिक आवश्यकताएं उसपर शासन करती है । वह अपनी दृष्टिमें अनाध्यात्मिक और छिछला है, अपने बारेमें और अपना परि-
३८० चालन करनेवाली शक्तियोंके बारेमें अनभिज्ञ है... । केवल एक आध्यात्मिक परिवर्तनसे, बाहरी मानसिक चेतनासे अधिक गहरी आध्यात्मिक चेतनामें विकसित होनेसे ही वास्तविक और प्रभाव- शाली फर्क पडू सकता है । आध्यात्मिक मनुष्यका मुख्य काम है अपने अंदर आध्यात्मिक सत्ताको खोजना । और दूसरों- को इस प्रकारके विकासमें सहायता देना ही उसकी वास्तविक जातीय सेवा है । जबतक यह न हो जाय तबतक बाहरी सहायता कुछ हल्का कर सकती है, सांत्वना दे सकती है, पर इससे ज्यादा कुछ नहीं या बहुत ही कम ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ८८३-८५)
मधुमयी मां, जिसमें अधिक आध्यात्मिक क्षमता न हो बह इस काममें अधिक-से-अधिक सहयोग कैसे दे सकता है?
मैं नहीं जानती कि यह कहा जा सकता है कि किसीमें कम या अधिक आध्यात्मिक क्षमता है । बात ऐसी नही है ।
आध्यात्मिक जीवन जीनेके लिये जो चीज आवश्यक है वह है चेतना- का उलटना । व्यक्तिके मानसिक क्षेत्रकी विभिन्न क्षमताओं और संभावनाओं- से इसकी तुलना किसी मी तरह नहीं की जा सकतीं । किसीके लिये यह तो कहा जा सकता है कि उसमें मानसिक, प्राणिक या शारीरिक योग्यताएं बहुत नहीं हैं, कि उसकी संभावनाएं बड़ी सीमित हैं, उस हालतमें यह भी पूछा जा सकता है कि किन तरीकोंसे इन योग्यताओंको विकसित किया जा सकता है, अर्थात्, नयी योग्यताएं कैसे प्राप्त की जायं जो कि निस्संदेह काफी कठिन हैं । पर आध्यात्मिक जीवन जीनेका अर्थ है अपने भीतर दूसरे जगतके प्रति खुलना । यह मानों अपनी चेतनाको उलटना है । साधारण मानव चेतना, यहांतक कि अतिविकसित मनुष्योंकी, यहांतक कि मेधावी ओर महती सिद्धि-प्राप्त मनुष्योंकी चेतना मी एक बहिर्मुखी गति होती है -- सारी शक्तियां बाहरकी ओर प्रेरित होती हैं, सारी चेतना बाहर फैली होती है; और यदि कोई चीज अंतर्मुखी होती भी है तो वह बहुत कम होती है, बहुत विरल, बहुत आशिक होती है, यह किन्हीं विशेष परिस्थितियों एवं उग्र आघातोंके दबावसे होता है । ये आघात जीवन सिर्फ इसी आशयसे देता है कि चेतनाकी बहिर्मुरवीनताकी गतिको थोड़ा उलट सके ।
लेकिन जिन्होंने आध्यात्मिक जीवन बिताया है उन सबको एक ही
३८१ अनुभव हुआ है : कहा जा सकता है कि सहसा उनकी सत्तामें कोई चीज उलट गयी, एकदम अचानक पलट गयी, कभी-कभी पूरी अंदरकी ओर मुड गयी, और अंदर मुड़नेके साथ-साथ ऊपरकी ओर भी मुड गयी, भीतरसे ऊपरकी ओर (लेकिन यह बाहरी ''ऊपर'' नही है, यह है भीतर गहराईमें, भौतिक ऊंचाइयोंकी कल्पनासे भिन्न कोई चीज) । शब्दशः कोई चीज उलट गयी है । एक निर्णायक अनुभूति हुई, और जीवनका दृष्टिकोण, जीवनको देखनेकी भंगिमा और जीवनके प्रति अपनाया गया आधार - सब कुछ सहसा बदल गया है, कुछ लोगोंमें तो काफी निश्चित रूपसे, अटल ढंगसे बदल गया है ।
और जैसे ही व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन और सद्वस्तुकी ओर मुड़ता है वह 'अनंत' और 'शाश्वत' का स्पर्श करता है और तब कम या ज्यादा योग्यताओं या संभावनाओंका प्रश्न ही नहीं रह जाता । आध्यात्मिक जीवनके बारेमें मनकी परिकल्पना ही यह कह सकती है कि आध्यात्मिक रूपसे जीनेके लिये उसमें बहुत-सी या कुछ योग्यताएं है, पर यह कहना बिलकुल समीचीन नहीं । इतना ही कहा जा सकता है कि अंतिम ओर पूर्ण प्रत्यावर्तनके लिये कोई कम तैयार है और कोई ज्यादा... । सारतः. यह साधारण क्रिया-कलापसे पीछे हटाने और आध्यात्मिक जीवनकी खोज- मे जानेकी मानसिक क्षमता हीं है जिसे नापाक जा सकता है ।
किंतु जबतक तुम मानसिक क्षेत्रमें रहते हो, इस अवस्थामें होते हो, चेतनाके इस स्तरपर रहते हो तबतक तुम दूसरोंके लिये ज्यादा कुछ नही कर सकते, न तो व्यापक जीवनके लिये और न ही खास व्यक्तियोंके लिये, क्योंकि स्वयं तुम्हें निश्चिति नहीं होती, निश्चित अनुभव नहीं होता, तुम्हारी चेतना अध्यात्म-जगत्में प्रतिष्ठित नहीं होती; केवल इतना ही कहा जा सकता है कि मानसिक क्रियाएं अच्छा ओर बुरा पक्ष लिये होती हैं, पर उनमें ज्यादा शक्ति नहीं होती, कम-से-कम आध्यात्मिक संसर्गकी वह शक्ति तो होती ही नहीं जो एकमात्र सच्ची प्रभावकारी शक्ति है ।
चेतनाकी जिस अवस्थामें मनुष्य स्वयं वास करता है, उस अवस्थाको दूसरों- को हस्तांतरित कर सकनेकी शक्यता ही वह एकमात्र चीज है जो सचमुच प्रभावकारी होती है । लेकिन इस शक्तिका आविष्कार नहीं किया जाता, इसकी नकल नही की जा सकती, इसके होनेका दिखावा नही किया जा सकता; जब कोई अपने-आप उस अवस्थामें प्रतिष्ठित हों जाता है, जब वह भीतर रहता है, उस तरह रहनेका प्रयास नहीं करता - जब वह उसमें होता है तो यह अनायास ही आ जाता है । और इसी
३८२ कारण, जिन लोगोंका जीवन सचमुच आध्यात्मिक होता है वे छैले नहीं जा सकते ।
आध्यात्मिक जीवनका अनुकरण उन लोगोंको तो भ्रममें डाल सकता है जो अभीतक मनमें वास करते है, पर वे लोग धोखा नही खा सकते और गलती नही कर सकते जिन्होंने चेतनाके इस प्रत्यावर्तनको पा लिया है, जिनका बाह्य सत्ताके साथ संबंध सर्वथा अलग है ।
मनोमय पुरुष इन लोगोंको नहीं समझता । जबतक कोई मानसिक चेतनामें वास करता है, चाहे वह उच्चतम ही क्यों न हों, और आध्या- त्मिक जीवनको बाहरसे देखता है, तबतक वह मानसिक क्षमताओंद्वारा, खोजने, गलती करने, सुधारने, प्रगति करने और दुबारा खोजनेके अभ्यास- द्वारा निर्णय करता है; और वह कल्पना कर बैठता है कि आध्यात्मिक जीवनवाले भी उसी अशक्यतासे पीड़ित हैं, लेकिन यह बहुत भारी भूल !
जब सत्ता उलट जाती है तो यह सब समाप्त हों जाता है । तब मनुष्य खोजता नहीं, देखता है । अनुमान नहीं करता, जानता है । टटोलता नहीं, लक्ष्यकी ओर सीधा चलता है । और जब वह आगे - थोड़ा ही आगे -- बढ़ चुकता है तब वह इस परम सत्यको जान जाता है, अनुभव करता है और इसे जीता है कि केवल 'परम सत्य' ही काम करता है, केवल 'परम देव' ही कामना करता है, जानता है और मनुष्यों- द्वारा काम करता है । वहां किसी गलतीकी गुंजाइश ही कैसे रह सकती है? वह जो कुछ करता है वह इसलिये करता है कि 'वह' उसे करना चाहता है ।
हमारी भ्रांत दृष्टिके लिये ये शायद अबोध्य क्रियाएं होतीं हैं, पर उनका कोई अर्थ होता है, उद्देश्य होता है और वे वहां ले जाती हैं जहां लें जाना चाहिये ।
(मौन)
यदि कोई सच्चाईके साथ दूसरोंकी और संसारकी मदद करना चाहता है तो सबसे अच्छी बात जो वह कर सकता है यह है कि वह अपने-आप वही बने जो दूसरोंको बनाना चाहता है -- केवल एक दृष्टांतकी तरह नहीं, बल्कि विकिरण करती हुई शक्तिके केंद्रके रूपमें जो अपने अस्तित्व- के बलपर बाकी दुनियाको बदलनेके लिये विवश कर दे ।
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